कई बार सोचता हूं मृत्यु के बाद जब शव को घर के सबसे बाहर वाले कमरे में, कफन ओढाए रख देते हैं और सभी लोग आसपास रो रहे होते हैं,तो क्या वह मृत व्यक्ति अदेह रूप से वही – कही बैठा कर सब को देख रहा होता है ?
और अगर ऐसा होता है तो उस वक्त उस व्यक्ति की चेतना किस रूप में कार्यरत होगी?
मसलन, क्या वह यह देखकर होता होगा कि उसके चले जाने का कितना अफसोस है सब में ?
या वह दुखी होता होगा उनका दु:ख देखकर ?
क्या वह कोशिश करता होगा उसके आसुं पोछने की?
या वह खुद भी रोता होगा उस पल की अब तो वो अपनी जेब से रुमाल निकाल कभी किसी के आसुं नहीं पोछं पायेगा।
ऐसा हो सकता है क्या उस समय चेतना इतनी उजागर और विकसित हो जाती की वह यह भी देख पाता हो की सही मायने में दुखी कौन है उनमें और कौन है जो बस औपचारिकता निभा रहा है ?
… अगर ऐसा होता होगा तो उसको उस सुक्ष्मता में भी धक्का लगता होगा कि इतने सालों वो कितने लोगों की परख ही न कर पाया।
मुझे मालूम है मैं अक्सर सोचते हुए दायरे लागं जाता हूँ… लेकिन क्या यह संभव है वह अदेह व्यक्ति आदतानुसार अगले दिन अपने हिस्से का पलगं सोने के लिए ठूँठता हो?
….. या गुसेलखाने में अपना ब्रश ठूँठता आ पहुंचाता हो….?
और वह ब्रश वहा न मिलने उसको फिर से एक बड़ा धक्का लगता हो… यह सोचकर कि मृत्यु एक ऐसा सच है जिसके साथ हम जल्दी समझौता कर लेते हैं
शायद उस क्षण यह स्वीकार लेता होगा कि मर तो वह बहुत पहले गया था बस फर्क सिर्फ इतना है कि अब वह अदेह है
2 replies on “अजिब सी जिदंगी कि एक मौत”
कुछ नहीं होता होगा।जैसे जन्म से पहले की स्थिति होती है वही मृत्यु के बाद या यूं समझिए कि किसी दुर्घटना में शरीर का यदि कोई हिस्सा अलग हो तो अलग हुए उस हिस्से में कोई गाड़ी भी चल जाए तो हमे कोई दर्द महसूस नही होगा या गहरी नींद आने पर माँ के बगल से बच्चा कोई चुरा ले जाए। चिरनिद्रा में गया व्यक्ति की आत्मा vacuum में समाहित होती होगी ।जितनी चाबी भरी राम ने चले उतना ही खिलौना…..😊
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सही कहा आपने 🙏
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